"... तू कुछ भी कहता है , इस बारे में मैं तेरे से ज्यादा जानता हूँ ऐसा कुछ नहीं होता।" स्वतः घोषित विद्वान साहिब ने मुहर लगा दी।
काफी सोच समझ कर मैं और जो कुछ कहना चाह रहा था वह बात अधूरी रह गयी। थोड़ी देर तक मन में लगा की ये कैसा इंसान है , जिसने सारी बात सुनने से पहले ही अनुमान लगा लिया की मैं क्या कहने वाला था, जो बात मैं बोलने जा रहा था उसके पीछे मेरा कोई अनुभव था और जो शायद उसी के लाभ के लिए था। खुद को अपमानित महसूस किया तो अहम् को चोट लगी और जुबान और दिल में कडवाहट फ़ैल गयी। कुछ और बोलने का मन नहीं किया। मन में आया की भाड़ में जाए मुझे क्या।
किसी बहुत समझदार व्यक्ति नें स्वयं समाज को चार हिस्सों में बाँट कर मुझे आखिरी वाले में रख दिया और मैं मुर्ख खुद अपने को सबसे उपर वाले में लगा रहा था ... चलो मेरा भ्रम तो दूर हुआ कम से कम।
बड़े बुजुर्गों ने कहा था की ईश्वर नें दो कान और एक मुंह इसीलिए दिए हैं की सुनो ज्यादा और बोलो कम और मुंह में दांत और जुबान इसीलिए दी हैं की जुबान को सीमित दायरे में रख कर संतुलित और मधुर वचन बोला जाये मगर कमाल है यहाँ सब लोग बहुत talented हैं और जुबान का प्रयोग कितना और कब करना है बहुत बेहतर तरीके से जानते हैं... मगर कान का भी थोड़ा प्रयोग होता तो क्या बात होती।
दिमाग का टयूब लाईट थोड़ी देर से जला और मन ने कहा की अगर गिलास भरा हुआ है तो ज्ञान कंहा जायेगा। कुएं का प्राणी कहे की वही सर्व ज्ञानी है और बाहर आना भी नहीं चाहे तो उसे कौन साबित कर पायेगा कि दुनिया वो नहीं है जो वो समझ रहा है। हालाँकि मैं खुद अपने आपको ज्ञानी नहीं मानता लेकिन शायद ये जनता हूँ की कोई भी जानकारी निरर्थक नहीं होती।
कहीं ना कहीं हम ये मान लेते हैं कि हमको सब कुछ आता है और और खुद को परफेक्ट मान कर विस्वास कर लेते हैं कि "Perfection does not require any improvements" .... मगर क्या ये सोच सही है? क्या हम वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं ? ये सोच का विषय है। जीवन का उद्देश्य अगर स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करना है, वो भी दुसरे कि रेखा काट कर, तो यह विषय ज्यादा चिंतनीय बन जाता है। आज कल प्रगति का तात्पर्य अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने से ज्यादा दुसरे के लक्ष्यों से आगे निकल जाना और अत्यधिक धन अर्जित करना हो गया है। कुछ समय पहले स्पर्धा का मतलब स्वयं की काबिलियत साबित करना होता था मगर अब वो सिर्फ दिखावा होने लगा है। बाहर का इंसान भोतिक वस्तुओं से परिपूर्ण मगर भीतर से खोखला और भयभीत होता जा रहा है। इस भागम भाग में उस इंसान को ढूंढना कितना मुश्किल होता जा रहा है जिसकी उपमा हम दे सकें। जिसे हमारी अगली पीढ़ी अपना आदर्श बना कर आगे बढ़ सकें। उपमा देने कि लिए क्यों अभी भी हम लोगों को तीन चार पीढ़ियों से पहले के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता हैं... आज के क्यों नहीं? आज भी हम क्यों इस लिए तरक्की करना चाहते हैं कि दूसरा आगे ना निकल जाये जबकि अन्दर से हम इतने कमजोर हो जाते हैं कि अपने विचारों तक पर कायम नहीं रह पाते हैं और हमेशा खुद को साबित करने के लिए दूसरों का सहारा लेते हैं ... हमारे विचार को किसी ने सराहा तो मैं ठीक नहीं तो मैं गलत?
मेरे विचार से जीवन एक अनुभव है और यहाँ पर आने का उद्देश्य अपने जीवन का सदुपयोग करना ही है। जीवनोपर्जन तो किसी भी प्रकार का जीव कर लेता है। इंसान को ये जीवन मिला है जिसका सदुपयोग करके कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे हमारी आने वाली पीढियां हमारा नाम गर्व से ले सकें।
स्वयं को समझदार समझना अच्छा है मगर दूसरों को मूर्ख ना समझें। उनके अपने अनुभव हैं जो सभी के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं। "आत्म सम्मान तो तभी मिलेगा जब आप दूसरों का सम्मान करना जाने" क्या ये बात खुद पर लागू नहीं होती ?
धन अर्जन तो एक वेश्या भी कर लेती है मगर इंसान वो होता है जो धन के साथ साथ सुविचार और कर्म से पूर्ण व्यक्तित्व बने और अपने वातावरण को बेहतर बनाये। जिस समय इंसान अपने अहम् के गिलास को खाली करके जीवन की नयी विविधताएँ अपनाने को तैयार हो जायेगा उसी समय से उसका विकास प्रारंभ हो जायेगा।
मुझे स्वयं लगता है की इस विकार ने बहुत लोगों को अपने गिरफ्त में ले लिया है और लोग जाने अनजाने जीवन जीने के बजाये जीवन के luxuries का क़र्ज़ उतारने में और स्वयं के क्रोध और अहम् के अन्धकार में ही पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं .... और खुद का जीवन नहीं जी पाते हैं। ये गुलामी नहीं तो और क्या है और गुलाम व्यक्तित्व कभी भी प्रगति नहीं कर सकता क्यूंकि उसका सारा समय चिंतन के बजाये चिंता में गुज़र जाता है।
लेखक होने के वावजूद मैं भी इससे अछुता नहीं हूँ, मगर मेरा प्रयत्न जारी है इसको पूरी तरह से खुद से दूर करने का।
"छमा प्रार्थी हूँ अगर मेरे विचारों से किसी को ठेस पहुंची हो"
काफी सोच समझ कर मैं और जो कुछ कहना चाह रहा था वह बात अधूरी रह गयी। थोड़ी देर तक मन में लगा की ये कैसा इंसान है , जिसने सारी बात सुनने से पहले ही अनुमान लगा लिया की मैं क्या कहने वाला था, जो बात मैं बोलने जा रहा था उसके पीछे मेरा कोई अनुभव था और जो शायद उसी के लाभ के लिए था। खुद को अपमानित महसूस किया तो अहम् को चोट लगी और जुबान और दिल में कडवाहट फ़ैल गयी। कुछ और बोलने का मन नहीं किया। मन में आया की भाड़ में जाए मुझे क्या।
किसी बहुत समझदार व्यक्ति नें स्वयं समाज को चार हिस्सों में बाँट कर मुझे आखिरी वाले में रख दिया और मैं मुर्ख खुद अपने को सबसे उपर वाले में लगा रहा था ... चलो मेरा भ्रम तो दूर हुआ कम से कम।
बड़े बुजुर्गों ने कहा था की ईश्वर नें दो कान और एक मुंह इसीलिए दिए हैं की सुनो ज्यादा और बोलो कम और मुंह में दांत और जुबान इसीलिए दी हैं की जुबान को सीमित दायरे में रख कर संतुलित और मधुर वचन बोला जाये मगर कमाल है यहाँ सब लोग बहुत talented हैं और जुबान का प्रयोग कितना और कब करना है बहुत बेहतर तरीके से जानते हैं... मगर कान का भी थोड़ा प्रयोग होता तो क्या बात होती।
दिमाग का टयूब लाईट थोड़ी देर से जला और मन ने कहा की अगर गिलास भरा हुआ है तो ज्ञान कंहा जायेगा। कुएं का प्राणी कहे की वही सर्व ज्ञानी है और बाहर आना भी नहीं चाहे तो उसे कौन साबित कर पायेगा कि दुनिया वो नहीं है जो वो समझ रहा है। हालाँकि मैं खुद अपने आपको ज्ञानी नहीं मानता लेकिन शायद ये जनता हूँ की कोई भी जानकारी निरर्थक नहीं होती।
कहीं ना कहीं हम ये मान लेते हैं कि हमको सब कुछ आता है और और खुद को परफेक्ट मान कर विस्वास कर लेते हैं कि "Perfection does not require any improvements" .... मगर क्या ये सोच सही है? क्या हम वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं ? ये सोच का विषय है। जीवन का उद्देश्य अगर स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करना है, वो भी दुसरे कि रेखा काट कर, तो यह विषय ज्यादा चिंतनीय बन जाता है। आज कल प्रगति का तात्पर्य अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने से ज्यादा दुसरे के लक्ष्यों से आगे निकल जाना और अत्यधिक धन अर्जित करना हो गया है। कुछ समय पहले स्पर्धा का मतलब स्वयं की काबिलियत साबित करना होता था मगर अब वो सिर्फ दिखावा होने लगा है। बाहर का इंसान भोतिक वस्तुओं से परिपूर्ण मगर भीतर से खोखला और भयभीत होता जा रहा है। इस भागम भाग में उस इंसान को ढूंढना कितना मुश्किल होता जा रहा है जिसकी उपमा हम दे सकें। जिसे हमारी अगली पीढ़ी अपना आदर्श बना कर आगे बढ़ सकें। उपमा देने कि लिए क्यों अभी भी हम लोगों को तीन चार पीढ़ियों से पहले के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता हैं... आज के क्यों नहीं? आज भी हम क्यों इस लिए तरक्की करना चाहते हैं कि दूसरा आगे ना निकल जाये जबकि अन्दर से हम इतने कमजोर हो जाते हैं कि अपने विचारों तक पर कायम नहीं रह पाते हैं और हमेशा खुद को साबित करने के लिए दूसरों का सहारा लेते हैं ... हमारे विचार को किसी ने सराहा तो मैं ठीक नहीं तो मैं गलत?
मेरे विचार से जीवन एक अनुभव है और यहाँ पर आने का उद्देश्य अपने जीवन का सदुपयोग करना ही है। जीवनोपर्जन तो किसी भी प्रकार का जीव कर लेता है। इंसान को ये जीवन मिला है जिसका सदुपयोग करके कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे हमारी आने वाली पीढियां हमारा नाम गर्व से ले सकें।
स्वयं को समझदार समझना अच्छा है मगर दूसरों को मूर्ख ना समझें। उनके अपने अनुभव हैं जो सभी के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं। "आत्म सम्मान तो तभी मिलेगा जब आप दूसरों का सम्मान करना जाने" क्या ये बात खुद पर लागू नहीं होती ?
धन अर्जन तो एक वेश्या भी कर लेती है मगर इंसान वो होता है जो धन के साथ साथ सुविचार और कर्म से पूर्ण व्यक्तित्व बने और अपने वातावरण को बेहतर बनाये। जिस समय इंसान अपने अहम् के गिलास को खाली करके जीवन की नयी विविधताएँ अपनाने को तैयार हो जायेगा उसी समय से उसका विकास प्रारंभ हो जायेगा।
मुझे स्वयं लगता है की इस विकार ने बहुत लोगों को अपने गिरफ्त में ले लिया है और लोग जाने अनजाने जीवन जीने के बजाये जीवन के luxuries का क़र्ज़ उतारने में और स्वयं के क्रोध और अहम् के अन्धकार में ही पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं .... और खुद का जीवन नहीं जी पाते हैं। ये गुलामी नहीं तो और क्या है और गुलाम व्यक्तित्व कभी भी प्रगति नहीं कर सकता क्यूंकि उसका सारा समय चिंतन के बजाये चिंता में गुज़र जाता है।
लेखक होने के वावजूद मैं भी इससे अछुता नहीं हूँ, मगर मेरा प्रयत्न जारी है इसको पूरी तरह से खुद से दूर करने का।
"छमा प्रार्थी हूँ अगर मेरे विचारों से किसी को ठेस पहुंची हो"
मैं चाहूँगा की आप अपने कमेंट्स दे कर मुझे भी बताएं की मैं अपने प्रयास में कितना सफल हो पाया हूँ।
मेरा ब्लॉग पढने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
- प्रशांत ( राख़ ).
- प्रशांत ( राख़ ).
5 comments:
आदमी सारी उम्र कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है|
आग्रह
प्रिय प्रशांत जी,
मैं अरविंद शेष हूं। दिल्ली से निकलने वाले "जनसत्ता" में हूं। इसके संपादकीय पन्ने पर ब्लॉग या इंटरनेट पर हिंदी सामग्रियों के संपादित अंशों पर आधारित एक साभार दैनिक स्तंभ "समांतर" प्रकाशित होता है। इसके लिए आपके ब्लॉग "अधूरी दुनिया" पर शाया एक आलेख "भरा हुआ गिलास" प्रकाशित करना चाहता हूं। आपके ब्लॉग पर कॉपीराइट की सूचना लगी है, इसलिए इजाजत लेना अनिवार्य समझता हूं।
कृपया मेरे ईमेल पते (arvindshesh@gmail.com) पर सूचित कर सकें तो आभारी रहूंगा।
अरविंद शेष
जनसत्ता
आज दिनांक 4 सितम्बर 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट भरा हुआ गिलास शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें। वैसे अरविंद शेष जी तो हैं ही।
prashant ji..kalam mein dhaar hai...
Aapkee lekhani achhee hai aur vicharon ka pravah sarahneeya. Asha hai aap aage bhee aise hee likhte rahenge.
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