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Sunday, 6 February 2011

घूमता पहिया.

माँ..  मुझे देर हो रही है... आप रोज सबेरे खाने की जिद क्यों करने लगती हैं। मैंने अपनी देर से उठने की सारी खीज माँ के उपर निकाल दी। माँ सब्जी और पराठा तैयार करके थाली लगा चुकी थीं और चाय बना रही थी। बेटा लगे हुए खाने को ना नहीं करना चाहिए कल से थोड़ा और जल्दी कर दिया करुँगी। मैंने जल्दीबाज़ी में एक पराठे पर सब्जी लगाई और रोल करके खाते हुए बाहर निकल गया। बेटा चाय तो पी लेते पीछे से आवाज़ आई. मैं बिना परवाह किये आगे निकल गया। मन ही मन में गुस्सा आ रहा था की मां को तो रोज खाने की पड़ी रहती है उनको तो कुछ भी पता ही नहीं है कि ज़माना कितना बदल गया है और जिंदगी कितनी मुश्किल होती जा रही है और कितना काम करना होता है ... बस खाना खा लो .... इनके लिए तो ज़िन्दगी में बस खाना ही है और कुछ भी नहीं ...

नए काम की जिम्मेदारियों ने मुझको शायद मुझको बहुत व्यस्त कर दिया था जिसकी वजह से मेरा ये व्यवहार बहुत आम हो गया था कि माँ बाप को किसी भी बात का उल्टा जवाब देना और अपने हाथ की कमाई ने शायद मुझे इतना आत्म निर्भर बना दिया था की मुझको लगने लगा था की घर वालों की अब कोई जरूरत नहीं थी लेकिन जब अपने से जब ज्यादा सफल लोगों को देखता तो सारा दोष माँ बाप की परवरिश पर मढ देता था और खीज में कभी कभी ये भी निकल जाता था कि आपने मेरे लिए किया ही क्या है. माँ बाप के पास शायद इसका कोई जवाब नहीं होता था और मुझे चाहिए भी नहीं था। जीवन बस ऐसे ही चलने लगा था और धीरे धीरे अब माँ बाप मेरे किसी भी चीज़ में दखल नहीं देते थे उनको शायद ये अहसास होने लगा था की मैं अब बड़ा हो गया हूँ.

कुछ दिनों के बाद मेरी शादी हो गयी और अब मेरा भी परिवार हो गया । माँ पिता जी के प्यार में कभी भी कोई कमी नहीं आई। पहले जिस तरह से वो मेरा ख़याल रखते थे वैसा ही मेरे परिवार का भी रखने लगे और मैं अपने काम में दिन प्रतिदिन ज्यादा व्यस्त होने लगा था और मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ की मेरा अहम् भी मेरी सफलताओं के साथ काफी तेजी से बढ़ता चला जा रहा था. घर वालों के प्रति अब वो बात नहीं रह गयी थी... जब भी मेरा मूड ख़राब होता तो दुनिया भर की सारी चिडचिडाहट अपने माँ बाप पर निकल देता था और वो चुप चाप सुन लेते थे। कभी कभी उन्होंने कुछ कहने कि भी कोशिश कि मगर शायद मैं सुनना ही नहीं चाहता था तो मेरे सामने उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा। वो अब मुझे जो कुछ भी समझाने की कोशिश करते मैं उनको फिजूल के उपदेश मान कर अनसुना कर देता था।

कुछ दिन बीते तो मुझे लगा की दुसरे शहर में अगर रहूँगा तो ज्यादा तरक्की कर लूँगा। माँ बाप ने समझाया की बेटा अगर कोशिश करोगे तो यही पर बहुत अच्छा कर लोगे यहाँ पर तुम्हारा घर है और किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी और यहाँ रहकर बस अपने काम में ध्यान दे सकोगे । मगर मेरे मन में तो नयी ऊँचाइयाँ को छूने का जोश था। मैंने कहा की आप लोग भी तो गाँव छोड़ कर शहर आये थे और अगर वही मैं कर रहा हूँ तो क्या गलत है। मेरी अपनी जिद्द थी और जिंदगी को अपनी तरह से जीने का जूनून तो फिर किसकी सुनता। माँ बाप को मैं पिछली पीढ़ी का जो मान चुका था ।

मैंने घर भी किराये पर ले लिया था जो हम सब के लिए पर्याप्त था . मैंने घर में सबसे पुछा कि आप लोग मेरे साथ चलिए मगर वो नहीं माने ... कह दिया बेटा अब सारी ज़िन्दगी यही गुज़ार दी अब कहाँ जायेंगे। वो अपने पुराने मकान में ही रह गए मेरे बहुत मनाने पर भी नहीं आये .... बड़े प्यार से कह दिया बेटा तुम्हारी ज़िन्दगी है तुम आगे बढ़ो और हम लोगों कि अब ये उम्र नहीं रह गयी है कि और जगह पर जा कर रह सकें मन में आया कि हद हो गयी । मैं भी तो जा रहा हूँ और शायद ये लोग मेरे साथ रहना नहीं चाहते ।

जाते समय मन पर बहुत बोझ था और सबकी आँख नम थी मैंने अपने तो तसल्ली दी की कुछ दिन की बात है मैं माँ पा को अपने घर ले आऊंगा या अपनी मंजिल जो बहुत करीब दिख रही थी पाकर लौट आऊंगा. कुछ दिनों तक दिल बहुत भरी रहा और अब समझ में आ रहा था की माँ बाप कितना प्यार करते थे ... दूरियों ने शायद आपसी प्यार को मेरे अन्दर फिर से जिन्दा कर दिया था.

दूसरा शहर ... हम सिर्फ दो ... और किराये का सस्ता मकान ... क्या ज़िन्दगी थी । काफी पैसे भी बचने लगे थे । लगने लगा था की अब सारे सपने पूरे हो जायेंगे और मैं अपने माँ बाप से बहुत आगे निकल जाऊंगा फिर कहूँगा कि अब आ कर मेरे पास रहिये और देखिये कि मैंने क्या किया है और कैसे जिंदगी जी रहा हूँ. ...

हमारी संतानें हुई और मैं अपने जिंदगी की थोड़ी सी बदली हुई राह पर फिर से पूरे जोश से बढ़ने लगा. थोड़ा खर्चा बढ़ा मगर तनखा भी तो  बढ़ रही थी और बचत भी थी इसीलिए सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था. .. अब बढ़ते खर्चों के साथ जिम्मेदारियां और जरूरत बढ़ रही थी...मकान बनाना था ....बच्चों को अच्छे स्कूल में पढाना था ... कार  खरीदनी  थी ... आखिर कब तक स्कूटर / मोटरसाइकिल से काम चलेगा. बच्चे अब दो पहिये पर आगे नहीं बैठते थे. सोचा की पहले घर ले लेते हैं फिर कार ले लेंगे.  मगर अब तो बच्चों की पढाई भी थी और उनके लिए भी पैसे बचाने थे और अपने आप से किया हुआ वादा याद था कि चाहे कुछ भी हो बच्चों में कोई भी कटोती नहीं होगी.. चाहे किसी भी तरह की कटोती करनी पड़े  करेंगे. अब तनखा भी कम लग रही  थी  और  खर्चे ज्यादा. अगले कुछ वर्षों में अपने बढ़ते हुए खर्चों में अपने ऊपर बहुत सारी कटोती कर और लोन लेकर किसी तरह से मकान खरीद लिया और फिर गाड़ी.

कुछ वर्ष और बीते वक़्त का पता ही नहीं चला ... मगर अब पहले जैसा जूनून नहीं था .... ना ही पहले वाली सोंच ... दिन प्रतिदिन की बढती जिम्मेदारियों और अनुभव ने किस वक्त मेरी प्रगतिशील मानसिकता को एक ठहरे हुए व्यक्तित्व में बदल दिया पता ही नहीं चला। बच्चे बड़े हो रहे थे और हम हर दिन अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे कि किसी तरह से भी बच्चों कि पढाई और सुविधाओं में कोई कमी ना रह पाए। मैं ये कैसे भूल सकता था कि मेरे माँ बाप नें जो नहीं किया था वो हमको करना था । जगह जगह जाकर पता करना कि कौन सा स्कूल अच्छा है और कहाँ पर कौन से शिक्षक अच्छे हैं। बच्चे भी पढने में अच्छे निकल रहे थे इसीलिए अब और भी ज्यादा उत्साह था. बच्चों पर हमारा अधिकार था और उनकी भलाई के लिए हमारी लगाई गयीं सख्तियाँ, जो बच्चों को कभी अच्छी नहीं लगी और शायद हमको भी नहीं लगती थी जिसकी वजह से बच्चे हमको पलट कर जवाब दे दिया करते थे मगर हमें बच्चों की किसी भी बात का बुरा नहीं लगता था क्योंकि आखिर वो हमारी औलादें हैं और हमको उनके भले बुरे का ध्यान रखना था. कुछ था और बहुत कुछ की कामनाएं थी मगर सीमित साधनों में अपने परिवार को संजो कर रखना था और बच्चे... उन्हें देख कर जिंदगी की सारी कमियां अब कमियाँ नहीं लगतीं और लगता था की अगर बचत नहीं भी हुई तो मेरे बच्चे हैं ना... वो हमारा ख्याल रख लेंगे... हमने उनको आखिर इतने प्यार से बड़ा जो कर रहे थे.

समय कैसे निकल गया पता ही नहीं चला । अब बच्चे बड़े हो गए थे और उनकी इसी शहर में नौकरी भी लग गयी थी आखिर कुछ तो फायदा था बड़े शहर में रहने का. हम उनको देख कर फूले नहीं समाते थे और उनको देख कर अपना जीवन सफल लगने लगा था. नौकरी से अब रिटायर भी हो गया था मगर कोई चिंता नहीं थी लग  रहा  था  की  बुढ़ापा  बहुत  सुख  से  बीतेगा .

आज मैं डाइनिंग टेबल पर रोज की तरह बैठ कर चाय पी रहा था कि अचानक आवाज़ आई बेटा खाना खा लो ... नहीं माँ आपको तो बस खाने कि लगी रहती है ...

जिंदगी की कहानी एक नए रूप में अपने आप को दोहरा रही थी बस अब किरदार बदल गए थे.

लेखक - प्रशांत श्रीवास्तव.

3 comments:

sanjeev dubey said...

कहने का अंदाज़ बढ़िया है, सरल और प्रभावशाली.

Unknown said...

very true indeed,yahi zindagi hai

Unknown said...

well done,good start.
Very true indeed,yahi zindagi hai