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Thursday, 11 March 2021

 कीमत से अगर तौलो तो, महँगे वो मिलेंगे,

जो लोग भीड़ का कभी हिस्सा नहीं बनते
जो तंग ज़मीं करने को समझे हैं हिफ़ाज़त,
बस शोर हीं बनते हैं, वो किस्सा नही बनते
मुझसे ना पूछ दोस्त मेरी सारी हक़ीक़त
कुछ राज़ छुपा रखे हैं, चर्चा नहीं करते
कब से बचा के रखी यहाँ दर्द की दौलत
बस ये हीं कमाई, जिसे खर्चा नहीं करते
शायद मेरे ईमान पर उनको भी यक़ीन है
आते हैं सामने तो वो परदा नहीं करते
कुछ लोग मुकम्मल बना भेजे हैं ख़ुदा ने
हम ऐसे बिना बात के सजदा नहीं करते
होगे तो खिलाड़ी बहुत हीं खूब तुम मगर
हम हारेंगे क्या खेल, जो खेला नहीं करते
रिश्तों में चन्द मोती समेटे हुए हैं "राख"
चुप छाप जी रहे, कोई मेला नहीं करते.

Tuesday, 25 April 2017

पिता की चिठ्ठी ! (मेरे पिता को समर्पित.)

मेरे प्यारे बच्चे,

तुम शायद सोच रहे होगे की पापा की चिठ्ठी कैसे आ गई ... पापा जो सबसे पीछे खड़े होते थे और उन्हें शायद पता भी नही होता था की हमारा बच्चा क्या कर रहा है किस क्लास में है ... और उनका तो सिर्फ़ काम था की नौकरी के बाद सिर्फ़ मम्मी को तनख्वा लाकर दे देना ताकि माँ सारी चीज़ों का ध्यान रख सकें। उन्होंने हमेशा ऑफिस के बाद कभी बच्चों को इतना समय नही दिया जो याद बन सके.... पता नही किन किन बातों में हमेशा  व्यस्त रहते थे ।

मेरा तुम्हारी मम्मी से समय समय पर अनबन और खर्चे पर नियंत्रण रखने की बातों पर तनातनी तुम लोगों को कभी अच्छी नहीं लगी और भी कई सारी बातें ... मुझे सब कुछ पता था, तुम लोगों की नज़रें मुझे सब कुछ बता देती थी। इन्ही सब छोटी बड़ी बातों की वजह से शायद तुम लोगों के लिए पिता शब्द का मतलब एक ऐसा आदमी बन गया था जो घर में तो रहता है पर बाहर वाला बनकर .... जिसे घर से कोई ख़ास मतलब नहीं था।

तुम लोगों को हमेशा यही शिकायत रही की मैंने कभी ये नही पुछा की तुम लोग क्या चाहते हो ... कभी रिजल्ट आने के बाद अगर नम्बर कम आए तो बहुत डांट दिया मगर अगर बहुत अच्छे नम्बर आए तो ज्यादा प्यार न किया ... तुम लोगों को ये लगता था की मेरा काम हमेशा से यही था की घर आने पर हिटलर की तरह रूल लगा देना और तुम सब लोगों के अपने व्यक्तित्व को उभरने का मौका नही देना। आज जो भी तुम हो वो अपनी माँ की वजह से हो क्योंकि बाप ने कभी वो काम नही किया जिसकी अपेक्षा तुम लोग रखते थे।

शायद तुम लोग सही हो क्योंकि वाकई तुम्हारी माँ ने तुम लोगों को बनाने में अपनी जिंदगी गुजार दी और उसने वो सब दिया जो एक बाप होते हुए मैं तुम्हे कभी नही दे पाया। शायद अपने प्यार को दिखाना मुझे कभी नहीं आया...और आज भी नहीं आता है.

आज भी याद है तुम्हारा जन्म हुआ था ...और जब मैंने तुम्हे पहली बार अपने हांथो में लिया था तो मैं शायद इतना खुश अपनी जिंदगी में कभी नही हुआ था। लगा की सारी जिंदगी की खुशियाँ मेरे हांथों में सिमट कर आ गई हैं। तुम्हारे नन्हे नन्हे हाथों की उँगलियों को छूकर ऐसा लगता था की मैं ख़ुद बच्चा बन गया। ऑफिस से घर आना और तुम्हे उठा कर हाथों पर झूला झुलाना मुझे दुनिया का सबसे अच्छा काम लगने लगा था। तुमको देखने से आँखें भर आती थी हम दोनों की ... और लगता था की तुम ईश्वर की सबसे बड़ी देन हो जो की तुम आज भी हो तुम मेरे लिए... हमको पता भी नही चला की तुम कब एक साल के हो गए। धीरे धीरे तुम अपने घुटनों से चलते हुए मेरे पास आने लगे ... और मैं तुम्हे हांथों में उठा कर बहुत ऊपर उठा देता था और तुम किलकारियां मार कर हँसते थे। सच बताऊँ लगता था की यही पल है जो ठहर जाए और मैं उसे जी लूँ जी भर कर ... लेकिन तुमको बड़े होते हुए देखने का भी बहुत मन करता था ... दिल चाहता था की इतना बड़े हो जाओ की मेरी ऊँगली पाकर कर साथ चलो और मैं जी भर के तुम्हारे साथ खेलूं। वो दिन भी आए जब तुम मेरी उंगली पकड़ कर लड़खड़ा कर चलते और तुमको इस तरह से चलते देख कर लगता की बस तुमको देखता रहूँ ... मैं अपने आपको दुनिया में सबसे ऊपर पाने लगा ... क्योंकि अब तुम भी मेरे साथ थे। तुम्हारी माँ हमें हमें खेलते देखकर बहुत खुश होती थी और कभी कभी उसकी आंखों में प्यार भरे आंसू भी आ जाते थे ... आख़िर तुम्हारी माँ जो थी।

दिन बीतते गए ..... तुम लोग स्कूल जाने लगे और हमारा मिलना थोड़ा सा और कम हो गया क्योंकि तुम्हारे स्कूल और मेरे ऑफिस के बाद वक्त मिलना कम हो गया। अक्सर मैं आता था तो तुम सोते हुए मिलते थे या पढ़ाई कर रहे होते और दूसरी तरफ़ घर की जरूरतें भी बढ़ने लगी थी।

अब जब तुम्हारे साथ मिलने का और बात करने का समय कम होने लगा तो मैंने दूसरा सहारा लिया ... तुम्हारी माँ का ... जो मुझे सब कुछ बताने लगी तुम लोगों के बारे में... और मैं कभी कुछ बात पे बहुत खुश होता तो तुमको सोते समय प्यार कर लेता या कभी नाराज़ हो जाता तो माँ तुम्हारा पक्ष ले लेती थी। दिन बीतने लगे और ये बात अब रोज की हो चुकी थी ..... माँ तुम लोगों के बारे में सब कुछ बताती और मैं उनको सुनता रहता था।

तुम लोग मेरे दिल और दिमाग से कभी भी दूर नही हुए .... जब भी मौका मिलता था तो अपने घर वालों के लिए कुछ ना कुछ लेकर जरूर आता था ....कभी काम पर बाहर जाता तो कोशिश करता की तुम सब के लिए कुछ न कुछ जरूर लेकर आऊ पर शायद ये हर बार मुमकिन नही हो पाया अब प्यार दिखाने का सिर्फ़ यही तरीका समझ में आता था मुझको की तुम लोगों को बहुत खुश देखूं। तुम लोगों की पल भर की खुशी के लिए मैं और तुम्हारी माँ कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे।

समय बदलता है ....यादें बदलती हैं ... बहुत कुछ भूल जाती हैं और कुछ याद रहती हैं ... पर मुझे एक पल भी नही भूला .... तुम्हारे बचपन से लेकर अब तक सबकुछ याद है और एक लम्हे में समां गया है ... मगर जाने क्यूँ आज भी तुम मुझसे बहुत दूर हो ... शायद काम में बहुत व्यस्त होगे .... या तुमको मेरी याद नहीं आती होगी ....

बचपन हमेशा नए अनुभव को पुराने अनुभव के ऊपर रखता रहता है .... और पुरानी यादें जिनमें मैं तुम्हारे बहुत करीब था वो धुंधली हो गई होंगी जिसके वजह से तुम लोग बहुत दूर हो गए हो मुझसे पर विश्वास करो मैं आज भी उतना ही करीब हूँ तुम लोगों से .... मेरे लिए समय नही बदला ....

आज बहुत याद आ रही थी तो ख़त लिखा ... तुम लोगों में से कोई भी बात करने को नही था ना हमारे पास .... तुम्हारी माँ मेरे पास बैठी है और वो कह रही है की मेरा भी बहुत सारा प्यार लिखना।

बहुत बहुत प्यार मेरे बच्चों ... और हमेशा खुश रहो और जीवन की सारी खुशियाँ तुमको मिले ...

तुम्हारा पिता.
- प्रशांत (राख.)

Monday, 20 February 2017

देख कर तूफ़ान हरपल, रास्तों पर चल पड़ा
ले लगा ली ठोकरें, पत्थर से मैं मूरत बना
आज मैं तैयार हूँ लड़ने को खुद की आन पर
देख लो ए वक़्त मैं तैयार अपनी जान पर.

आज फिर दीपक कोई रोशन करूँगा राह में
जो बुझेगा ना किसी आँधी किसी तूफ़ान में
रंग लाएँगी दुआएँ दिल से निकली मान कर
देख लो ऐ वक़्त मैं तैयार अपनी जान पर.

हौसला फिर बढ़ रहा है जो कभी कमज़ोर था
एक सपना बुन रहा है जो कभी गठजोड़ था
"राख" सा निर्जीव था मैं, जी गया सम्मान पर
देख लो ऐ वक़्त मैं तैयार अपनी जान पर.

तुम कभी कमज़ोर ना थे, ना खुदा कमज़ोर था
वक़्त जो पीछे था निकला वो ना तेरी ओर था
आज लगता है उसी ने भर दी झोली माँग पर
देख लो ऐ वक़्त मैं तैयार अपनी जान पर.

- प्रशांत (राख.)
चलो अल्फ़ाज़ के एक और नए दौर को देखें
नयी रंगत में आके रूप के साये को फिर देखें

चमकती रोशनी आती है पश्चिम की दिशाओं से
चलो एक बार हम भी धोती कुर्ता फिर पहन देखें

बड़ों से कुछ सवालों में निकल जाती है एक मुद्दत
समझ जब बात आती है तो गुज़रा वक़्त फिर देखें

समय ने दे दिया उत्तर अभी तक के मसाइल का
कहीं से फिर शुरू कर एक बचपन और हम देखें

वो तपती धूप और बारिश में हमको छांव देते थे
कभी चल उन दरख़्तों का अभी का हाल भी देखें

झुलसते वक़्त की आँधी बना दे "राख" ना मुझको
ज़रा रुक जायें थोड़ी देर इस सावन को फिर देखें।
वहीं है दिन वहीं हैं रात, बस बदले हुये हैं हम
नहीं बदले कोई हालात, बस बदले हुये हैं हम
पुरानी दोस्ती और फ़र्ज़ का मौसम ना बदला है
नयी अब कोई ना आवाज़ दो बदले हुये हैं हम

पिघलते रंग हैं तस्वीर के तो क्या बनाऊँ मैं
सताये वक़्त की दहलीज़ पे क्यूँ लौट जाऊँ में
वहीं उलझे हुये जज़्बात है और है वहीं मौसम
नये अब ना ग़मों का साज दो बदले हुये हैं हम

पुराना ज़ख़्म, रंज ओ ग़म हमारे साथ चलता था
कभी वो टीस भरता था कभी बेबाक़ हँसता था
मगर अब दर्द सहने की हुई है थोड़ी आदत कम
मुझे अब ला नयी तलवार दो बदले हुये हैं हम

नहीं बदली हक़ीक़त और इंसा भी नहीं बदला
हमारे और तुम्हारे बीच का रिश्ता नहीं बदला
मगर अब रोशनाइ हो रही है थोड़ी सी मद्धम
नया अब ना कोई अहसास दो बदले हुये हैं हम

समय का छूटता बंधन वही हो तुम यही हैं हम
तेरे इल्ज़ाम के बदले सफ़ाई दे ना पाए हम
अबद के दाग़ क्या है पूरा दामन अब दिखाता हूँ
कोई इस "राख" को इंसाफ़ दो बदले हुये हैं हम
नये मौसम का राही हूँ मगर बातें पुरानी है
यहीं रास्ता तो जीवन है यहीं सबकी कहानी है
यहाँ नाहक तराज़ू ले के निकले हो ऐ मेरे दोस्त
सभी अच्छे हैं, हालातों ने कुछ रच दी कहानी है
मेरे लहजों की सिलवटों का तुमसे सामना होगा
मेरे और तेरे रिश्तों की ये नाज़ुक शर्मशारी है
कश्मकश होती रहती है दिलो दिमाग़ की हरदम
वो बातें लब पे ना आती है जो दिल में पुरानी हैं
कभी तो मुड़ के देखो छोड़ के जाते हुये लमहों
तेरी आँखों में सपना हैं मेरी आँखों में पानी है
लिये ज़हमत ज़माने में क़मीं कोई नहीं लेकिन
ज़मीं और असमां के बीच में क़द की कहानी है
समय का चक्र है ऐसा कभी ऊपर कभी नीचे
मैं कैसे रोक लूँ इसको नहीं यह जादूकारी है
वो रिश्ते अपने दामन मे कभी हमने समेटे थे
नज़र वो भी दिखाते है नज़र जिनकी उतारी है
असर होता मोहब्बत में तो हम बेज़ार क्यूँ होते
मेरे और तेरे रिश्ते में जहाँ की दुनियादारी है
बता देना अगर कुछ बच गयी तासीर-ए-उल्फ़त
सुना मेरे मुख़ालिफ़ से तुम्हारी पारदारी है
अगर फ़ुर्सत में बैठूँ तो बहुत कुछ याद आता है
हमारे "राख"बनने की बड़ी दिलकश कहानी है
कभी तो पास आक़े दिल की बातें चार कर देखो
जो बाज़ी तुमने हारी है वो हमने भी तो हारी है।

- प्रशांत (राख.)

Sunday, 6 February 2011

घूमता पहिया.

माँ..  मुझे देर हो रही है... आप रोज सबेरे खाने की जिद क्यों करने लगती हैं। मैंने अपनी देर से उठने की सारी खीज माँ के उपर निकाल दी। माँ सब्जी और पराठा तैयार करके थाली लगा चुकी थीं और चाय बना रही थी। बेटा लगे हुए खाने को ना नहीं करना चाहिए कल से थोड़ा और जल्दी कर दिया करुँगी। मैंने जल्दीबाज़ी में एक पराठे पर सब्जी लगाई और रोल करके खाते हुए बाहर निकल गया। बेटा चाय तो पी लेते पीछे से आवाज़ आई. मैं बिना परवाह किये आगे निकल गया। मन ही मन में गुस्सा आ रहा था की मां को तो रोज खाने की पड़ी रहती है उनको तो कुछ भी पता ही नहीं है कि ज़माना कितना बदल गया है और जिंदगी कितनी मुश्किल होती जा रही है और कितना काम करना होता है ... बस खाना खा लो .... इनके लिए तो ज़िन्दगी में बस खाना ही है और कुछ भी नहीं ...

नए काम की जिम्मेदारियों ने मुझको शायद मुझको बहुत व्यस्त कर दिया था जिसकी वजह से मेरा ये व्यवहार बहुत आम हो गया था कि माँ बाप को किसी भी बात का उल्टा जवाब देना और अपने हाथ की कमाई ने शायद मुझे इतना आत्म निर्भर बना दिया था की मुझको लगने लगा था की घर वालों की अब कोई जरूरत नहीं थी लेकिन जब अपने से जब ज्यादा सफल लोगों को देखता तो सारा दोष माँ बाप की परवरिश पर मढ देता था और खीज में कभी कभी ये भी निकल जाता था कि आपने मेरे लिए किया ही क्या है. माँ बाप के पास शायद इसका कोई जवाब नहीं होता था और मुझे चाहिए भी नहीं था। जीवन बस ऐसे ही चलने लगा था और धीरे धीरे अब माँ बाप मेरे किसी भी चीज़ में दखल नहीं देते थे उनको शायद ये अहसास होने लगा था की मैं अब बड़ा हो गया हूँ.

कुछ दिनों के बाद मेरी शादी हो गयी और अब मेरा भी परिवार हो गया । माँ पिता जी के प्यार में कभी भी कोई कमी नहीं आई। पहले जिस तरह से वो मेरा ख़याल रखते थे वैसा ही मेरे परिवार का भी रखने लगे और मैं अपने काम में दिन प्रतिदिन ज्यादा व्यस्त होने लगा था और मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ की मेरा अहम् भी मेरी सफलताओं के साथ काफी तेजी से बढ़ता चला जा रहा था. घर वालों के प्रति अब वो बात नहीं रह गयी थी... जब भी मेरा मूड ख़राब होता तो दुनिया भर की सारी चिडचिडाहट अपने माँ बाप पर निकल देता था और वो चुप चाप सुन लेते थे। कभी कभी उन्होंने कुछ कहने कि भी कोशिश कि मगर शायद मैं सुनना ही नहीं चाहता था तो मेरे सामने उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा। वो अब मुझे जो कुछ भी समझाने की कोशिश करते मैं उनको फिजूल के उपदेश मान कर अनसुना कर देता था।

कुछ दिन बीते तो मुझे लगा की दुसरे शहर में अगर रहूँगा तो ज्यादा तरक्की कर लूँगा। माँ बाप ने समझाया की बेटा अगर कोशिश करोगे तो यही पर बहुत अच्छा कर लोगे यहाँ पर तुम्हारा घर है और किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी और यहाँ रहकर बस अपने काम में ध्यान दे सकोगे । मगर मेरे मन में तो नयी ऊँचाइयाँ को छूने का जोश था। मैंने कहा की आप लोग भी तो गाँव छोड़ कर शहर आये थे और अगर वही मैं कर रहा हूँ तो क्या गलत है। मेरी अपनी जिद्द थी और जिंदगी को अपनी तरह से जीने का जूनून तो फिर किसकी सुनता। माँ बाप को मैं पिछली पीढ़ी का जो मान चुका था ।

मैंने घर भी किराये पर ले लिया था जो हम सब के लिए पर्याप्त था . मैंने घर में सबसे पुछा कि आप लोग मेरे साथ चलिए मगर वो नहीं माने ... कह दिया बेटा अब सारी ज़िन्दगी यही गुज़ार दी अब कहाँ जायेंगे। वो अपने पुराने मकान में ही रह गए मेरे बहुत मनाने पर भी नहीं आये .... बड़े प्यार से कह दिया बेटा तुम्हारी ज़िन्दगी है तुम आगे बढ़ो और हम लोगों कि अब ये उम्र नहीं रह गयी है कि और जगह पर जा कर रह सकें मन में आया कि हद हो गयी । मैं भी तो जा रहा हूँ और शायद ये लोग मेरे साथ रहना नहीं चाहते ।

जाते समय मन पर बहुत बोझ था और सबकी आँख नम थी मैंने अपने तो तसल्ली दी की कुछ दिन की बात है मैं माँ पा को अपने घर ले आऊंगा या अपनी मंजिल जो बहुत करीब दिख रही थी पाकर लौट आऊंगा. कुछ दिनों तक दिल बहुत भरी रहा और अब समझ में आ रहा था की माँ बाप कितना प्यार करते थे ... दूरियों ने शायद आपसी प्यार को मेरे अन्दर फिर से जिन्दा कर दिया था.

दूसरा शहर ... हम सिर्फ दो ... और किराये का सस्ता मकान ... क्या ज़िन्दगी थी । काफी पैसे भी बचने लगे थे । लगने लगा था की अब सारे सपने पूरे हो जायेंगे और मैं अपने माँ बाप से बहुत आगे निकल जाऊंगा फिर कहूँगा कि अब आ कर मेरे पास रहिये और देखिये कि मैंने क्या किया है और कैसे जिंदगी जी रहा हूँ. ...

हमारी संतानें हुई और मैं अपने जिंदगी की थोड़ी सी बदली हुई राह पर फिर से पूरे जोश से बढ़ने लगा. थोड़ा खर्चा बढ़ा मगर तनखा भी तो  बढ़ रही थी और बचत भी थी इसीलिए सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था. .. अब बढ़ते खर्चों के साथ जिम्मेदारियां और जरूरत बढ़ रही थी...मकान बनाना था ....बच्चों को अच्छे स्कूल में पढाना था ... कार  खरीदनी  थी ... आखिर कब तक स्कूटर / मोटरसाइकिल से काम चलेगा. बच्चे अब दो पहिये पर आगे नहीं बैठते थे. सोचा की पहले घर ले लेते हैं फिर कार ले लेंगे.  मगर अब तो बच्चों की पढाई भी थी और उनके लिए भी पैसे बचाने थे और अपने आप से किया हुआ वादा याद था कि चाहे कुछ भी हो बच्चों में कोई भी कटोती नहीं होगी.. चाहे किसी भी तरह की कटोती करनी पड़े  करेंगे. अब तनखा भी कम लग रही  थी  और  खर्चे ज्यादा. अगले कुछ वर्षों में अपने बढ़ते हुए खर्चों में अपने ऊपर बहुत सारी कटोती कर और लोन लेकर किसी तरह से मकान खरीद लिया और फिर गाड़ी.

कुछ वर्ष और बीते वक़्त का पता ही नहीं चला ... मगर अब पहले जैसा जूनून नहीं था .... ना ही पहले वाली सोंच ... दिन प्रतिदिन की बढती जिम्मेदारियों और अनुभव ने किस वक्त मेरी प्रगतिशील मानसिकता को एक ठहरे हुए व्यक्तित्व में बदल दिया पता ही नहीं चला। बच्चे बड़े हो रहे थे और हम हर दिन अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे कि किसी तरह से भी बच्चों कि पढाई और सुविधाओं में कोई कमी ना रह पाए। मैं ये कैसे भूल सकता था कि मेरे माँ बाप नें जो नहीं किया था वो हमको करना था । जगह जगह जाकर पता करना कि कौन सा स्कूल अच्छा है और कहाँ पर कौन से शिक्षक अच्छे हैं। बच्चे भी पढने में अच्छे निकल रहे थे इसीलिए अब और भी ज्यादा उत्साह था. बच्चों पर हमारा अधिकार था और उनकी भलाई के लिए हमारी लगाई गयीं सख्तियाँ, जो बच्चों को कभी अच्छी नहीं लगी और शायद हमको भी नहीं लगती थी जिसकी वजह से बच्चे हमको पलट कर जवाब दे दिया करते थे मगर हमें बच्चों की किसी भी बात का बुरा नहीं लगता था क्योंकि आखिर वो हमारी औलादें हैं और हमको उनके भले बुरे का ध्यान रखना था. कुछ था और बहुत कुछ की कामनाएं थी मगर सीमित साधनों में अपने परिवार को संजो कर रखना था और बच्चे... उन्हें देख कर जिंदगी की सारी कमियां अब कमियाँ नहीं लगतीं और लगता था की अगर बचत नहीं भी हुई तो मेरे बच्चे हैं ना... वो हमारा ख्याल रख लेंगे... हमने उनको आखिर इतने प्यार से बड़ा जो कर रहे थे.

समय कैसे निकल गया पता ही नहीं चला । अब बच्चे बड़े हो गए थे और उनकी इसी शहर में नौकरी भी लग गयी थी आखिर कुछ तो फायदा था बड़े शहर में रहने का. हम उनको देख कर फूले नहीं समाते थे और उनको देख कर अपना जीवन सफल लगने लगा था. नौकरी से अब रिटायर भी हो गया था मगर कोई चिंता नहीं थी लग  रहा  था  की  बुढ़ापा  बहुत  सुख  से  बीतेगा .

आज मैं डाइनिंग टेबल पर रोज की तरह बैठ कर चाय पी रहा था कि अचानक आवाज़ आई बेटा खाना खा लो ... नहीं माँ आपको तो बस खाने कि लगी रहती है ...

जिंदगी की कहानी एक नए रूप में अपने आप को दोहरा रही थी बस अब किरदार बदल गए थे.

लेखक - प्रशांत श्रीवास्तव.

Sunday, 29 August 2010

भरा हुआ गिलास.

"... तू कुछ भी कहता है , इस बारे में मैं तेरे से ज्यादा जानता हूँ ऐसा कुछ नहीं होता।" स्वतः घोषित विद्वान साहिब ने मुहर लगा दी।
काफी सोच समझ कर मैं और जो कुछ कहना चाह रहा था वह बात अधूरी रह गयी। थोड़ी देर तक मन में लगा की ये कैसा इंसान है , जिसने सारी बात सुनने से पहले ही अनुमान लगा लिया की मैं क्या कहने वाला था, जो बात मैं बोलने जा रहा था उसके पीछे मेरा कोई अनुभव था और जो शायद उसी के लाभ के लिए था। खुद को अपमानित महसूस किया तो अहम् को चोट लगी और जुबान और दिल में कडवाहट फ़ैल गयी। कुछ और बोलने का मन नहीं किया। मन में आया की भाड़ में जाए मुझे क्या।

किसी बहुत समझदार व्यक्ति नें स्वयं समाज को चार हिस्सों में बाँट कर मुझे आखिरी वाले में रख दिया और मैं मुर्ख खुद अपने को सबसे उपर वाले में लगा रहा था ... चलो मेरा भ्रम तो दूर हुआ कम से कम।

बड़े बुजुर्गों ने कहा था की ईश्वर नें दो कान और एक मुंह इसीलिए दिए हैं की सुनो ज्यादा और बोलो कम और मुंह में दांत और जुबान इसीलिए दी हैं की जुबान को सीमित दायरे में रख कर संतुलित और मधुर वचन बोला जाये मगर कमाल है यहाँ सब लोग बहुत talented हैं और जुबान का प्रयोग कितना और कब करना है बहुत बेहतर तरीके से जानते हैं... मगर कान का भी थोड़ा प्रयोग होता तो क्या बात होती।

दिमाग का टयूब लाईट थोड़ी देर से जला और मन ने कहा की अगर गिलास भरा हुआ है तो ज्ञान कंहा जायेगा। कुएं का प्राणी कहे की वही सर्व ज्ञानी है और बाहर आना भी नहीं चाहे तो उसे कौन साबित कर पायेगा कि दुनिया वो नहीं है जो वो समझ रहा है। हालाँकि मैं खुद अपने आपको ज्ञानी नहीं मानता लेकिन शायद ये जनता हूँ की कोई भी जानकारी निरर्थक नहीं होती।

कहीं ना कहीं हम ये मान लेते हैं कि हमको सब कुछ आता है और और खुद को परफेक्ट मान कर विस्वास कर लेते हैं कि "Perfection does not require any improvements" .... मगर क्या ये सोच सही है? क्या हम वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं ? ये सोच का विषय है। जीवन का उद्देश्य अगर स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करना है, वो भी दुसरे कि रेखा काट कर, तो यह विषय ज्यादा चिंतनीय बन जाता है। आज कल प्रगति का तात्पर्य अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने से ज्यादा दुसरे के लक्ष्यों से आगे निकल जाना और अत्यधिक धन अर्जित करना हो गया है। कुछ समय पहले स्पर्धा का मतलब स्वयं की काबिलियत साबित करना होता था मगर अब वो सिर्फ दिखावा होने लगा है। बाहर का इंसान भोतिक वस्तुओं से परिपूर्ण मगर भीतर से खोखला और भयभीत होता जा रहा है। इस भागम भाग में उस इंसान को ढूंढना कितना मुश्किल होता जा रहा है जिसकी उपमा हम दे सकें। जिसे हमारी अगली पीढ़ी अपना आदर्श बना कर आगे बढ़ सकें। उपमा देने कि लिए क्यों अभी भी हम लोगों को तीन चार पीढ़ियों से पहले के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता हैं... आज के क्यों नहीं? आज भी हम क्यों इस लिए तरक्की करना चाहते हैं कि दूसरा आगे ना निकल जाये जबकि अन्दर से हम इतने कमजोर हो जाते हैं कि अपने विचारों तक पर कायम नहीं रह पाते हैं और हमेशा खुद को साबित करने के लिए दूसरों का सहारा लेते हैं ... हमारे विचार को किसी ने सराहा तो मैं ठीक नहीं तो मैं गलत?

मेरे विचार से जीवन एक अनुभव है और यहाँ पर आने का उद्देश्य अपने जीवन का सदुपयोग करना ही है। जीवनोपर्जन तो किसी भी प्रकार का जीव कर लेता है। इंसान को ये जीवन मिला है जिसका सदुपयोग करके कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे हमारी आने वाली पीढियां हमारा नाम गर्व से ले सकें।

स्वयं को समझदार समझना अच्छा है मगर दूसरों को मूर्ख ना समझें। उनके अपने अनुभव हैं जो सभी के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं। "आत्म सम्मान तो तभी मिलेगा जब आप दूसरों का सम्मान करना जाने" क्या ये बात खुद पर लागू नहीं होती ?

धन अर्जन तो एक वेश्या भी कर लेती है मगर इंसान वो होता है जो धन के साथ साथ सुविचार और कर्म से पूर्ण व्यक्तित्व बने और अपने वातावरण को बेहतर बनाये। जिस समय इंसान अपने अहम् के गिलास को खाली करके जीवन की नयी विविधताएँ अपनाने को तैयार हो जायेगा उसी समय से उसका विकास प्रारंभ हो जायेगा।

मुझे स्वयं लगता है की इस विकार ने बहुत लोगों को अपने गिरफ्त में ले लिया है और लोग जाने अनजाने जीवन जीने के बजाये जीवन के luxuries का क़र्ज़ उतारने में और स्वयं के क्रोध और अहम् के अन्धकार में ही पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं .... और खुद का जीवन नहीं जी पाते हैं। ये गुलामी नहीं तो और क्या है और गुलाम व्यक्तित्व कभी भी प्रगति नहीं कर सकता क्यूंकि उसका सारा समय चिंतन के बजाये चिंता में गुज़र जाता है।

लेखक होने के वावजूद मैं भी इससे अछुता नहीं हूँ, मगर मेरा प्रयत्न जारी है इसको पूरी तरह से खुद से दूर करने का।

"छमा प्रार्थी हूँ अगर मेरे विचारों से किसी को ठेस पहुंची हो"
मैं चाहूँगा की आप अपने कमेंट्स दे कर मुझे भी बताएं की मैं अपने प्रयास में कितना सफल हो पाया हूँ।
मेरा ब्लॉग पढने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
- प्रशांत ( राख़ ).

Saturday, 2 August 2008

काम....

ज फ़िर सुबह उठा ... देखा घड़ी में सात बज गए हैं ... मन में सोचा उफ़ ये सोमवार क्यों इतनी जल्दी आ जाता है। अभी पिछले हफ्ते दिन गिन शनिवार आया था और फ़िर आज सोमवार आ गया...दिन कितने जल्दी बीत जाते हैं... चलो आज फिर ऑफिस॥

मुंह लटकाए फिर मुरारी लाल रोज की तरह बुड्बुराते हुए ऑफिस की तरफ़ बढ़ गए ... काम है की कोंई नयापन नही ... तनखा घर आने से पहले ही ख़तम हो जाती है .... बीबी है जो सुनती नही है .... बच्चे बेचारे अभी छोटे हैं तो मान जाते हैं चाहे डांट से चाहे पुचकार से। पर आख़िर कब तक ऐसा चलेगा। अगर कुछ नही हुआ तो कल क्या होगा जब बच्चे बड़े होंगे ... अभी तो किराया भी कम ही है पर मकान मालिक कह रहा था की छे महीने हो गए अब तो किराये की बात करें... उफ़ कितनी जल्दी दिन बीत जाता है ... आज नही तो कल मकान भी खरीदना है कब तक किराये के मकान में रहेंगे । .... कंपनी का मालिक तनखा नही बढाता पर क्या करें दूसरी नौकरी इतने आसानी से कहाँ मिलती है ... हर तरफ़ प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम .... कही सिस्टम की तो कहीं सोसाइटी की । बहुत लोगों को कोस लिया बहुत सिस्टम को भी गाली दे दी पर क्या बदला ... कुछ भी नही, बस बैंक बैलेंस जो इस नए किराये के घर से पहले थोड़ा बहुत दीखता था वो अब कभी भी सौ रुपयों से ऊपर नहीं आ पाता। चलो कम से कम कोंई नई चीज़ मिली blame करने के लिए ... "किराये का मकान"।

बहुत हो गया अब ... आज तो तनखा बढ़ाने की बात करूँगा ऑफिस में ... पर कैसे ...क्या कह कर बढ़वाऊँ.... बॉस क्या देख कर बढ़ाएगा ... क्या बोलूँगा उससे ....की मेरा परिवार बड़ा है.... पैसा कम पड़ता है ... या मैं बेहतर काम करता हूँ तो ज्यादी तनखा चाहिए ...
पर काम ... वही तो कर रहा हूँ पिछले पाँच साल से... क्या करता हूँ ... बस छोटा मोटा काम ... शायद ऑफिस को मेरी जरूरत ही ना हो ... और सिर्फ़ मुझे इसीलिए रखा हो क्योंकि मैं पुराना आदमी हूँ ... वरना मेरा काम तो कोई भी कर सकता है ... और अगर बात किया तो कही वो ये ना कह दे की किसी और को रख लेंगे कम तनखा पर ....

अचानक से ख़ुद का काम छोटा लगने लगा और लगा की जितना पैसा मुझे इस काम को करने का मिलता है उससे ज्यादा कोंई क्या देगा ... ख़ुद को हीं तुलनात्मक नजरिये से देखते हुए ख़ुद बा ख़ुद अपने आप को भी छोटा बना लिया। इंसानी फितरत ... जो अगर सहमी होती है तो अपने आप को बहुत छोटा देखती है और ताकतवर होती है तो उसे सब बहुत छोटे दिखने लगते हैं ...

पर इस बार घर की परेशानियाँ डर से ज्यादा ताकतवार हो रही थी ... मन में सोचा की अब चाहे जैसा भी हो कुछ तो करना ही पड़ेगा.... महंगाई मुह फाड़ कर खड़ी है। हर चीज़ हाँथ से दूर होती दिख रही है .... तनखा बढ़वानी ही पड़ेगी ... नही तो उधारी की नौबत आ जायेगी और लिया भी तो उसे वापस कैसे करूँगा..... कुछ न कुछ करना पड़ेगा पर क्या ... मन का डर कभी ऊपर आता तो कभी मजबूरी।
हाँ! एक तरीका है शायद ... बॉस को क्या चाहिए ... अच्छा काम ... और अगर मैं सबसे अच्छा काम करूँगा तो बॉस खुश हो जाएगा और अगर बॉस खुश हो जाए तो मैं आसानी से बात कर सकता हूँ। फ़िर तो तरक्की भी मिलेगी और तनखा भी बढ़ जायेगी ..... आज से ऑफिस में देर तक बैठूँगा... कोंई प्रॉब्लम ले कर दो या तीन बार रोज उससे मिल लूँगा... और देर तक रुकने के बाद ईमेल कर दूंगा... तो उसे लगेगा की मेरे पास काम ज्यादा है और मैं काफ़ी मेहनत से उसे कर रहा हूँ।

दिमाग की खिड़कियाँ खुलने लगी थीं ... ऑफिस के अन्दर कदम रखा ... नए जोश के साथ काम करना शुरू कर दिया ... देर तक रुकता देर से मेल करता, बॉस के पास नए नए सवाल लेकर पहुँच जाता की ये क्यों है? ऐसा क्यों है ? बॉस भी प्रभावित हो गया था की आख़िर ये क्या हो गया इसे...
अब रात दिन के सपने, की इस बार डबल प्रमोशन मिलेगा और बॉस तनखा भी डबल करवा देगा ... मन है आख़िर... जितना किया है उससे ज्यादा ही मिलने की अपेक्षा रखे तो इसमें हर्ज़ क्या है।

रोज अख़बार पढ़ते थे। ख़बर आई की कुछ जगहों पर कोंई प्रॉब्लम हो गई है। शेयर मार्केट लुड़क गया है। मन में हंसा की इतना बड़ा अपने को लगाते हैं पर किसी भी प्रॉब्लम को कंट्रोल नही कर सकते।

महीने बीत गए ... आख़िर वो दिन आ गया जिस दिन की तैयारी हमने महीनो से की थी ... पर इस बार मैनेजमेंट ने शायद कुछ महीने पहले ही मीटिंग रख दी। मन में आया की चलो अच्छा ही है ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा इस बार
... मन में सोचा .. इस बार तनखा की बात होगी शायद...... हाँ जरूर होगी। अगर वो नहीं करेंगे तो मैं ख़ुद ही बात करूँगा।
इस बार कुछ अलग था पिछले बार से... मैं इस बार अपने काम से ज्यादा आश्वस्त था की इस बार मीटिंग में बॉस मेरी बहुत ज्यादा तारीफ करेंगे और मन ही मन में धन्यवाद कहने के कई तरीके सोचने लगा ....
दिन शुरू होते ही बॉस अपने कमरे में आ पहुचे ... थोदि ही देर में देखा की कंपनी के मालिक भी आए हुए हैं ... इस बार ज्यादा खुशी हुई की मेरी तारीफ इस बार ऊपर तक पहुँच जायेगी ... किस्मत साथ है शायद और अगर मालिक बढायेंगे तो ज्यादा बढेगी।
मीटिंग शुरू हो गई ... एक एक करके लोग बॉस के कमरे में जा रहे थे। कुछ लोग नोर्मल लेकिन कुछ लोग बेहद उदास हो कर बाहर आ रहे थे ... पहले पूछ लेता था की क्या हुआ पर इस बार फिक्र ज्यादा नही थी क्योंकि अपने आप को बेस्ट employee का certificate पहले ही दे चुका था, तो किसी से तुलना क्या करना।

मेरा नम्बर आया ... सीना चौडा कर कर अन्दर पहुँच कर सामने की कुर्सी पर बैठ गया।
बॉस ने मेरे पेपर देखे और शुरू किया ... मुरारी बाबु! ... इस बार अपने काफ़ी मेहनत से काम किया ... सारा काम समय से पहले और बेहतर ढंग से किया है... और आपकी इसी बात को देखकर ... मैनेजमेंट ने निर्णय लिया है.... की आप की नौकरी सलामत रहेगी परन्तु मार्केट की प्रॉब्लम के चलते आपकी १० प्रतिशत तनखा कम करनी पड़ेगी.... अगर कुछ महीने में सब कुछ सही हो गया तो आपकी तनखा फिर से वापस उतनी ही कर दी जायेगी ... बॉस ने बात को ऐसे बोला की जैसे बहुत बड़ा अहसान कर दिया हो मुझपर....

अब क्या बोलूँ ... पावों के नीचे से ज़मीन निकल गई ... आया था तनखा बढ़वाने पर यहाँ नौकरी के लाले पड़ गए थे...

बात संक्षिप्त थी क्योंकि सिर्फ़ उन्हें इतना ही बताना था .... बाहर आया ... बहुत लोग अपना समान पैक कर रहे थे। अपनी डेस्क पर वापस आ कर सर पर हाँथ रख कर बैठ गया।
बगल वाले ने पुछा ...क्या हुआ ... गई ?
मैंने कहा ...नही पर तनखा....
तो क्या हुआ बाकी लोगों से तो अच्छा है .... ऊपर वाले का शुक्र मनाओ बच गए ....
मैंने हामी भरी और घड़ी पर निगाह डाली ...

6 बज गए थे और दिन भी अच्छा नही बीता ... टिफिन उठाया और धीरे धीरे कदम बाहर की तरफ़ बढाये ... कदमों के ऊपर लग रहा था की पचास पचास किलो के पत्थर बाँध दिए गए हों ...इतनी मेहनत के बाद क्या मिला ... लेने गए थे , दे कर आ रहे हैं ... दिमाग काम नही कर रहा था ...किसी को कोसने तक को दिल नही किया ...कोस लेता तो शायद दिल हल्का हो जाता
...

थोडी दूर चला और लगने लगा की सारे रस्ते बंद हो गए हैं। अब क्या करूँ ... मन किया की फूट फूट के रोऊँ .... पर आदमी हूँ ... जब थोडी देर और चला तो मन ने कहा की अब तो एक ही रास्ता है की खर्चों पर नियंत्रण किया जाए ... पर कैसे ... मन अब तक तो गुना भाग करने में एक्सपर्ट हो गया था तो फ़िर शुरू हो गया ...पर इस बार नई वाली तनखा के साथ ...

अब तो सिर्फ़ जो सबसे ज्यादा जरूरी काम है उन्ही को करूंगा... घर के बल्ब.... अब उन्हें उतना ही प्रयोग में लाऊंगा जितनी ज़रूरत है ... और दो के बजाये एक ही सब्जी बने ... हाँ ! ऐसे भी मुझे एक ही सब्जी अच्छी लगती है ... दो तो वैसे भी ज्यादा है हमारे जैसे आदमी के लिए, वो तो अमीरों के घर होता है की जितने लोग उतनी सब्जी ... और बस के बजाये साईकिल से चलूँगा तो निश्चित ही हमारा काम चल जाएगा।

मन की सारी गणित पूरी हो चुकी थी और लग रहा था की बजट कंट्रोल में आ गया था .... मैं मुस्कुराया और सोचा ... चलो अब कोंई प्रॉब्लम नही है अगर इसी तरह किया जैसा सोचा है तो सब ठीक से चल जाएगा और जब तनखा वापस पूरी हो जायेगी तो उसी में पैसे फिर से बचने लगेंगे ... अरे वाह! ये पहले क्यों नही सोचा मैंने ... बेकार में इतनी मेहनत की ... लेकिन अब मजबूरी है की काम करना कम नही कर सकता .... बॉस के सामने जो इज्ज़त बनी हुई है उसे तो मिटा नही सकता न .... मगर इतनी सी बात समझाने के लिए ऊपर वाले को मेरे साथ ऐसा नही करना चाहिए था ... पर कोई बात नही हम मीडियम क्लास वालों के साथ तो ऐसा ही होता है।

अगला दिन आया... इस दिन के बाद से अखबार का कुछ ज्यादा ही इंतज़ार होने लगा था । रोज अखबार देखने लगा की कब मार्केट ठीक हो और कब मेरी तनखा वापस पूरी हो जाए .... फिर से ऑफिस टाइम से पहले जाने लगा ... जितना काम था उसे पूरे मन से करने लगा क्योंकि इस बार उम्मीद पूरी थी की मार्केट के ठीक होते ही मेरी तनखा वापस ठीक हो जायेगी और इस बार से पैसे जरूर बचने लगेंगे ...

नया जोश, नई उम्मीद, नया ख्याल ... वही काम पर इस बार कुछ नया था .... नई सी उम्मीद उठ रही थी मन में ... और लगने लगा की इस बार तो जरूर प्रमोशन होगा....बस मार्केट सुधर जाए।

ख़राब वक्त कुछ न कुछ अंततः सिखा के ही जाता है ... तो उसे ख़राब क्यों कहें ... जो भी है अच्छा ही है ... जो होता है अच्छे के लिए ही होता है ।

--- प्रशांत

Friday, 1 August 2008

अधूरे पन्ने ....

हम सब अपनी अपनी मंजिल की तरफ़ भागते रहते हैं और मंजिल भी वो जिसका न तो रास्ता हमें मालूम है न ही पता क्योंकि जब तक हम उसके पास पहुँचते हैं तो महसूस होता है की हमारी मंजिल ये नही वो है जो शायद दूर कही झिलमिलाती हुई दिख रही है और हम फ़िर भागते हुए आगे बढ़ जातें हैं. जब से जिंदगी की दौड़ शुरू की है हर समय जिंदगी का सबसे बड़ा झूठ सामने आ जाता है और कहता है की अगर मैं ये पा लूँगा तो जिंदगी का मकसद पूरा हो जाएगा और जब जो हमारे पास आती है तो सोचता हूँ की शायद ये वो नही है जिसकी मुझे इतनी ज्यादा जरूरत थी .... मगर वो जरूर है जो अब मैं देख सकता हूँ.... यही सोच कर एक नई दौड़ के लिए हम फ़िर से तैयार हो जाते हैं और भागने लगते हैं।

आज थोड़ा थका तो सोचा की थोडी देर रुक जाऊँ। फ़िर महसूस किया की थकान बहुत ज्यादा है और पता ही नही चला की चलते चलते कितनी दूर आ गया हूँ जहा से मंजिल की बुनियाद भी दिखाई नही पड़ रही है... फ़िर सोचा की देखू तो मैंने क्या किया है जिंदगी भर... बीते पलों की किताब खोली और पन्ने पलटता गया ... पहला पन्ना अधूरा ... दूसरा अधूरा ... फ़िर बेसब्र होकर सारी किताब पलट डाली ... और पाया की कोई भी पन्ना मैंने पुरा नही किया है ... सब कुछ अधूरा छोड़ कर अगले पन्ने की तरफ़ बढ़ गया हूँ ... चाहे वो रिश्ते हों ... प्यार हों ... जिम्मेदारी हो ... और वो अनगिनत बातें जिनको मैं अपनी उपलब्धि मानता था ... सब कुछ अधूरा .... शुरुआत तो सब की थी पर अंत किसी का भी नही...

थोडी थकान कम हो गई थी ... मैं उठा और बढ़ चला उस मंजिल की तरफ़ जो अभी भी कोसों दूर थी ... यहाँ भी मैं अपनी सोंच फ़िर अधूरी छोड़ कर आगे बढ़ गया .... बिना निष्कर्ष निकाले .... बिना सबक लिए ....

एक और अधूरा पन्ना जूड्ड गया मेरी जिंदगी की अधूरी किताब में ... ना जाने उसे कौन पढेगा ... न जाने उसे कौन समझेगा ... उसको मैंने ऐसा छोड़ा जो न मिसाल बन पायी न सबक... ना मेरे लिए .... न किसी और के लिए .....

--- प्रशांत
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